अपराध की प्रकृति और परिभाषा

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अपराध की प्रकृति एवं परिभाषा


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो सामाजिक सम्बन्धों को विनियमित करने के लिए विभिन्न प्रकार के सामाजिक नियम तय किया है तथा इन सामाजिक नियमो का उल्लघंन एवं अतिक्रमण करने वाली प्रवृतियों को रोकने के लिए भी कुछ नियम बनाया है । कुछ कार्यों को निषिद्ध किया गया है तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी है । जिन कार्यों को  निषिद्ध किया गया है और  उसके उल्लंघन के लिए दण्ड का प्रावधान किया गया है उस साधारण अर्थ में अपराध कह सकते हैं । 
अपराध की परिभाषा

साधारण अर्थ में विधि के उल्लंघन को अपराध कहा जा सकता है परन्तु विधि के प्रत्येक उल्लंघन को हम अपराध नहीं कह सकते हैं जैसे संविदा विधि का उल्लंघन अपराध नहीं है जब तक कि उसे दण्डनीय न बनाया गया हो । किसी कार्य को अपराध होने के लिए यह आवश्यक है कि वह विधि के उल्लंघन के रूप में किया गया हो तथा उसके लिए दंड का प्रावधान हो । 
अपराध की परिभाषा अभी तक कोई भी विद्वान संतोषजनक रूप से नहीं दे पाया है इसका मुख्य कारण अपराध की बदलती अवधारणा रही है । क्योंकि एक ही कार्य एक देश में दण्डनीय है जबकि दूसरे देश में वह दण्डनीय नही है । उदाहरण के उदाहरण के लिए सती प्रथा, बहु विवाह इत्यादि को भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराध घोषित किया गया है जबकि यूरोप के कुछ भागों में इन्हें अपराध नहीं माना जाता है ।  अतः अपराध की ऐसी परिभाषा देना बहुत कठिन है जो सभी देशों में सर्वमान्य रूप से लागू हो ।  
अपराध विधि द्वारा दंडनीय कार्य है क्योंकि यह अधिनियम द्वारा निषिद्ध है ।
बेथम के अनुसार - "अपराध वह हैं जिसे विधान ने अच्छे बुरे कारणों से निषिद्ध किया है । यदि उपयोगिता के नियमों के अनुसार सर्वश्रेष्ठ सम्भावित विधि के अन्वेषण के लिए प्रश्न सैद्धान्तिक शोध से सम्बन्धित है तब ऐसे कार्यो को जो बुराई के कारण अथवा उसे प्रयत्न करने की संभावना के कारण निषिद्ध किये जाने चाहिए , हम अपराध की संज्ञा दे सकते हैं ।"
ब्लैकस्टोन के अनुसार "  निषिद्ध या समादेशित करने वाली सार्वजनिक विधि में किया गया कार्य या लोप अपराध कहलाता है।" 

स्टीफेन के अनुसार  " मात्र सार्वजनिक अधिकारो का उल्लंघन  अपराध है । " 
आस्टिन के अनुसार " एक अपकार जिसमें पैरवी छतिग्रस्त पक्ष या उसके प्रतिनिधियों के स्वविवेक पर की जाती है, व्यवहारिक अपकृत्य है , एक कार जिसकी पैरवी शासनया उसकी अधीनस्थ व्यक्तियों द्वारा की जाती , अपराध है"
केनी के अनुसार "अपराध ऐसे दोष हैं जिनमें अनुशास्ति दंडात्मक होती है जो किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा क्षम्य  नहीं है तथा यदि वह क्षम्य  है तो केवल सम्राट द्वारा ।" 
कीटन के अनुसार " अपराध कोई भी अवांछनीय कार्य है जिसे राज्य दंड आरोपित करने के लिए कार्यवाही आरंभ कर सबसे उपयुक्त ढंग से परिशुद्ध करता है, न कि क्षतिग्रस्त व्यक्ति के स्वविवेक पर उपचार छोड़ कर देता है" 
मिलर  अपराध को इस प्रकार परिभाषित करते हैं --"विधि द्वारा दंड के भय से निषिद्ध या आदेशित किसी कार्य को करना या उसकी अपेक्षा करना अपराध है जिसे राज्य अपने नाम में कार्यवाही आरम्भ कर आरोपित करता है ।" 
पैटन के अनुसार " अपराध के सामान्य लक्षण है राज्य द्वारा कार्यवाही को नियंत्रित करना,दंड को क्षमा करना तथा दंड देना" 

उपरोक्त परिभाषाओं के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि अपराध की सर्वमान्य परिभाषा देना दुष्कर कार्य है अतः अपराध को इसके आवश्यक लक्षणों द्वारा जानना ज्यादा उचित है । अपराध के निम्न तीन लक्षण पाए जाते है - 
1 किसी मनुष्य के असामाजिक कार्य द्वारा क्षति पहुंचना जिसे शासन रोकने का इच्छुक हो ।
2 शासन द्वारा किये गए निरोधक उपाय दण्ड या दण्ड की धमकी के रूप में होते हैं ।
3 विधिक कार्यवाहिया जिनमें अभियुक्त के अपराध को विनिश्चत किया जाता है, विशिष्ट प्रकार के साक्ष्य नियमों द्वारा नियंत्रित होती है

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