अपराध के तत्व Elements of Crime

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अपराध के आवश्यक तत्व

विधि द्वारा निषिद्ध कार्य जिसके लिए दंड का प्रावधान हो अपराध कहलाता है। अपराध के निम्नलिखित प्रमुख तत्व है - 
  1. मनुष्य
  2. दुराशय
  3. कोई कार्य
  4. क्षति
उपरोक्त एक अपराध को गठित करने के लिए अति आवश्यक है। किसी अपराध को करने के लिए एक मानव का होना जरूरी है। और ऐसे मानव के मन में दुराशय होना चाहिए। ऐसे दुराशय को पूरा करने के लिए कोई कार्य किया गया होना चाहिए तथा ऐसे कार्य द्वारा क्षति होनी चाहिए । संक्षेप में ये तत्व अपराध के लिए आवश्यक है ।

मनुष्य (Human)

किसी कार्य को अपराध कहने के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी मानव द्वारा किया गया हो। जानवर या निर्जीव पदार्थो द्वारा अपराध नहीं किया जा सकता है ।  प्राचीन काल में इस बात के उदाहरण मिलते है जिसमें पशुओं एवं निर्जीव वस्तुओं को भी दण्ड दिया जाता था । इसका मुख्य कारण उस समय का अपराधिक न्याय प्रशासन का प्रतिशोध की भावना पर आधारित होना है । जब निर्जीव पदार्थ या जानवर को दण्डित कर दिया जाता तो प्रतिशोध की भावना मिट जाती थी । प्रारम्भ में दण्ड देने का अधिकार पीडित को होता था। जो अभी राज्य के हाथ में है।  मध्यकाल में भी इस बात के प्रमाण मिलते हैं जिसमें पशु द्वारा किये कार्य के लिए पशु मालिक को दण्ड दिया जाता था। आज के समय में भी पशुओ द्वारा किये कार्य के लिए उसके मालिक को दंडित किया जाता है परन्तु यह दण्ड पशु के कार्य के लिए नही बल्कि मालिक की लापरवाही के लिए दिया जाता है। 
     वर्तमान समय में अपराध किस मनुष्य द्वारा ही किया गया होना चाहिए । आधुनिक न्याय प्रणाली में अपराधिक मनः स्थिति के सिद्धात को अपनाया गया है। 

दुराशय (mens rea)

दुराशय अपराध का अति आवश्यक तत्व है। क्योंकि मात्र कार्य किसी को अपराधी नही बनाता जब तक कि उसका मन भी अपराधी न हो । दुराशय का यह सिद्धांत लैटिन भाषा की प्रसिद्ध उक्ति " Actus non facit reum nici mens sit rea" पर आधारित है। इसका तात्पर्य होता है कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता जब तक की उसका आशय न हो । इसी से एक संबन्धित एक दूसरी उक्ति हैं की मेरे द्वारा, मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है । ( Actus me invito factus non est mens actus)। 
उपरोक्त दोनों ही उक्तियों का तात्पर्य यह हैं कि कार्य को दंडनीय होने के लिए जानबूझकर किया गया होना चाहिए। 
फाउलर बनाम पैजेट (1798) के वाद में कहा गया की अपराध को गठित होने के लिए आशय एवं कार्य दोनो होना चाहिए। अर्थात बिना अपराधिक आशय के उपस्थिति के अभियुक्त व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता है।

अपराधिक कृत्य (Actus -reus)

अपराध के गठन के लिए दुराशय के साथ - साथ एक अपराधिक कृत्य भी होना चाहिए । 
  केनी के अनुसार अपराधिक कृत्य मानव आचरण का वह   परिणाम है जिसे विधि रोकना चाहता है । रसेल अपराधिक कृत्य को मानव आचार का भौतिक परिणाम बताते हैं ।  कृत्य के अन्तर्गत अवैध लोप भी शामिल हैं । लोप किसी विधिक दायित्व के उल्लंघन का होना चाहिए । भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 43 के अनुसार अवैध शब्द उस हर बात का घोतक है जो अपराध हो या विधि द्वारा प्रतिषिद्ध या जो सिविल कार्यवाही का अधार उत्पन्न करता हो और कोई व्यक्ति उस बात को करने के लिए वैध रूप से  आबद्ध कहा जाता है जिसका लोप करना उसके लिए अवैध हो । 

मानव की क्षति Injury to Human Being

अपराध का चौथा आवश्यक तत्व क्षति है । भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 44 क्षति को परिभाषित करती है उसके अनुसार क्षति शब्द किसी प्रकार की हानि का द्योतक हैं , जो किसी ब्यक्ति के शरीर , मन , ख्याति या सम्पति को अवैध रूप से कारित हुई हो । 

इस प्रकार से अपराध के गठन के लिए चार आश्यक तत्वो का होना जरूरी है । परन्तु कुछ ऐसे भी अपराध है जिनमे सभी तत्व नही पाये जाते हैं । कभी कभी दुराशय के बिना भी अपराध बन जाते हैं ऐसे अपराधों को कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व का अपराध कहा जाता है । जैसे भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 494 




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