उत्तर प्रदेश में जमींदारी संस्था के उद्भव, विकास एवं उनके उन्मूलन का इतिहास

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प्रश्न 1- उत्तर प्रदेश में जमींदारी संस्था के उद्भव, विकास एवं उनके उन्मूलन के इतिहास की संक्षिप्त विवेचना कीजिए ।


Q. 1. Explain the brief history of origin, development and abolition of Zamindari in Uttar Pradesh.

हिन्दू काल-प्राचीन काल में उत्तर प्रदेश तथा भारत में जमींदारी प्रथा नहीं थी। भारत में प्राचीन काल में भूमि को अत्यन्त पवित्र माना जाता था। इस भावनावश कोई भी मनुष्य, यहाँ तक कि स्वयं राजा भी भूमि पर स्वामित्व नहीं रख सकता था। भूमि सबकी समझी जाती थी । समस्त प्रजाजन ही उसके स्वामी थे। इसके पश्चात् मनु ने जिन्होंने हिन्दुओं के विभिन्न विधि-विधानों को सूक्तिबद्ध किया, मनुस्मृति में वर्णित किया- "ज्ञानी वृक्ष काटने वाले को उस भूमि का अध्यासी मानते हैं व पहले घायल करने वाले का मृग" ("मनु 9-44")। इस प्रकार जो मनुष्य भूमि को खोदकर कृषि योग्य बनाता था उसे उस भूमि का स्वामी माना गया। मनु के पश्चात् अन्य हिन्दू विधि-विज्ञों ने इस पर समय-समय पर अपने विचार प्रकट किए जिनके अनुसार राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था बल्कि उसके स्वामी उसके अध्यासी होते थे। राजा उपज में भाग लेने का अधिकारी था। वह इसलिए कि राजा प्रजा की भूमि, सम्पत्ति तथा स्वतन्त्रता की रक्षा करता था। स्मृतिकार नारद के अनुसार, "यह उपज भाग (मालगुजारी) राजा का प्रजा-पालक वेतन था।" - नारद स्मृति, पृष्ठ 221


प्राचीन हिन्दूकाल में खेती के लिए प्रत्येक को बाध्य किया जाता था । यदि कोई व्यक्ति अपनी खेती को न तो स्वयं ही करता था और न किसी से करवाता था, तो राजा को अपना उस क्षेत्रपति से उपज भाग व जुर्माना वसूलने का अधिकार था। अतः यदि कोई व्यक्ति खेती नहीं कर सकता था तो उससे खेती लेकर दूसरे व्यक्ति को दे दी जाती थी। राजा को ऐसा उस क्षेत्रपति द्वारा लगान न दे सकने के कारण' करने का अधिकार था।

उस काल में भू-सम्पत्ति पैतृक होती थी या संयुक्त परिवार द्वारा धारण की जाती थी जो अन्तरीय नहीं थी। उन दिनों विक्रय मूल्य के अभाव में ऐसा व्यावहारिक भी नहीं था, किन्तु विधिशास्त्री जीमूतवाहन ने इस प्राचीन सिद्धान्त में परिवर्तन कर दिया. जिसके अनुसार भूमि का प्रत्येक स्वामी अन्तरण का पूर्ण अधिकार रखता था तथा. वह एक अन्तरणीय सम्पत्ति होती थी।

हिन्दू काल

उस काल में शासन की छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक गाँव का एक मुखिया होता था जिसे 'मुखिया' या 'ग्रामाधिकारी' कहते थे। भूमि उपज में राज-भाग या मालगुजारी पूरे गाँव पर आरोपित की जाती थी। यह पूरी मालगुजारी मुखिया द्वारा प्रत्येक कृषक के क्षेत्रफल व उर्वरा शक्ति के आधार पर विभाजित कर दी जाती थी।  गाँव में मुखिया  की हैसियत बड़ी महत्वपूर्ण होती थी। वह न केवल मालगुजारी की अदायगी के लिए जिम्मेदार था बल्कि उस मालगुजारी के समान एवं उचित विभाजन के लिए भी। मुखिया को यह कार्य करने के लिए एक निश्चित अंश उसकी मेहनत का मिलता था। अधिकांशतः मुखिया का पद वंशानुगत होता था । विशेष परिस्थितियों में गाँववासी नए मुखिया को चुनते थे जो राजा द्वारा अनुमोदित होने पर ही मान्य होता था । इस प्रकार मुखिया की हैसियत एक जमींदार के रूप में ही थी। 


मुस्लिम-काल


मुस्लिम शासकों ने हिन्दूकालीन प्रचलित भूमि व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं किया। भूमि में हित रखने वाले व्यक्तियों के अधिकार पूर्व की भाँति ही चलते रहे। आरम्भ में मुसलमानों ने हिन्दू राजाओं को विजित करके अधीन रखा। राज्यों के अन्दरूनी मामलों में कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। राजा लोग पहले की भाँति ही गाँव के मुखिया के माध्यम से भूमि स्वामियों से मालगुजारी वसूल करवाते रहे। बाद में राजाओं ने मुस्लिम धर्म के अनुसार 'जजिया' व 'खिराज' नामक कर लगाए तथा राजस्व वसूलने के उद्देश्य से राजस्व समाहर्त्ता (Rent Collectors) तथा करदाता प्रधानों (Tributory Chiefs) की नियुक्तियाँ की। आरम्भ में उन्होंने पराजित राजाओं व नरेशों को ही यह पद प्रदान किए। इनके अलावा मुस्लिम शासकों ने कुछ गाँव प्रमुखों व ग्राम चौधरियों को भी नियुक्त किया जिन्हें संग्रहीत राजस्व का पाँच प्रतिशत धन प्राप्त होता था। ये व्यक्ति वास्तव में राज्य के अधिकारी थे, किन्तु बाद में उनका एक  वर्ग बन गया तथा वे राज्य तथा भूमि को जोतने वालों के बीच में मध्यवर्ती (intermediary) बन गए। मुगल साम्राज्य के पतन तथा केन्द्रीय शासन की शक्ति की कमजोरी के साथ-साथ राजा, राजस्व समाहर्त्ता, मध्यवर्ती अब जमींदार, रियासतदार. तालुकेदार बन बैठे। इन्होंने मुखिया का बहिष्कार करना प्रारम्भ कर दिया तथा स्वयं ही जमीन के मालिक बन बैठे।


ब्रिटिश भारत में जमींदारी संस्था


भारत में जब अंग्रेजों का आगमन हुआ तब सन् 1775 ई. से 1875 ई. के मध्य उन्होंने कई बार में समस्त उत्तर भारत में अधिकांशतया अपनी प्रशासनिक पकड़ मजबूत कर ली। उन्होंने प्रारम्भ में पूर्ववर्ती जमींदारों एवं ताल्लुकेदारों के स्वामित्व के अधिकारों को मान्यता प्रदान की। इसी काल में एक मध्यवर्तियों के नए वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें 'जागीरदार' कहा गया। इस वर्ग में वे व्यक्ति थे जिन्होंने राजाओं, नवाबों तथा ब्रिटिश शासकों की किसी न किसी रूप में महत्वपूर्ण सेवाएँ की थीं, उन्हें सेवाओं के बदले में जागीरें प्रदान की गई थीं। ब्रिटिशकाल का यह वर्ग अत्यन्त शक्तिशाली था। ब्रिटिश शासकों ने इन मध्यवर्तियों से राजस्व संग्रह के लिए समझौते किए। भूमि के सर्वेक्षण कराए, किन्तु उनके राजस्व वसूलने के अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जिससे ये मध्यवर्ती मनमाना राजस्व वसूलते थे। इसके फलस्वरूप कृषकों व जोतदारों की दशा बड़ी शोचनीय हो गई थी।


सन् 1857 ई. में सम्पूर्ण भूधृति व्यवस्था में परिवर्तन किया गया। उसको व्यापक पुनरीक्षित किया गया तथा विनियमित किया गया। इसके पश्चात् सन् 1869, 1873, 1901, 1926, 1939 में उत्तरोत्तर विकास करते हुए विभिन्न अधिनियमों के द्वारा भूधृति को विनियमीकृत किया गया, किन्तु उपरोक्त जितने भी अधिनियम बनाए गए ये सब जमींदारों व मध्यवर्तियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। उन्हें व्यापक अधिकार व आय बढ़ाने के विभिन्न तरीकों को अपनाने की पूरी छूट दी गई थी। इन जमींदारों को काफी छूटें भी दी गई थीं। उन्हें किसी भी ग्रामीण की अनिवार्य सेवाओं को माँगने व साझा वसूलने का अधिकार दिया गया जिससे काश्तकारों की हालत नाजुक हो गई।


जमींदारी प्रथा का उन्मूलन


भारत में जमींदारी प्रथा अंग्रेजी राज्य की देन थी। इस प्रथा से किसानों की दशा बदतर हो रही थी तथा उनमें एक असन्तोष व्याप्त हो रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् किसानों में जागृति आई। देश के नेता व विद्वानों ने इसकी कटु आलोचना की। देश में जमींदारी प्रथा का दमन करने के लिए किसान आन्दोलन (एका आन्दोलन) चलाया गया। इसके परिणामस्वरूप 1921 में अवध रेण्ट (संशोधन) अधिनियम एवं 1925 में आगरा क्रान्तिकारी अधिनियम पारित हुआ, परन्तु किसानों के कष्टों का निवारण ये अधिनियम न कर सके। यह अनुभव किया गया कि इस जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बिना किसानों के कष्टों का निवारण व उनकी स्थिति में सुधार मुश्किल है। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1935 ई. में लखनऊ अधिवेशन में राज्य में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन को सिद्धान्त में स्वीकार किया गया। 1937 में जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल बना तो इसने भूमि सुधार का कार्य अपने हाथ में ले लिया तथा उ० प्र० काश्तकारी अधिनियम, 1939 पारित करके किसानों की दशा सुधारने का प्रयास किया।


8 अगस्त, 1946 ई. को राज्य की विधान सभा ने उत्तर प्रदेश में जमींदारी के उन्मूलन सिद्धान्त को निम्न प्रस्ताव के रूप में पारित किया- 

यह विधान सभा इस प्रान्त में जमींदारी प्रथा, जो कृषक और राज्य के बीच मध्यवर्तियों से युक्त है के उन्मूलन के सिद्धान्त को स्वीकार करती है तथा यह निश्चय करती है कि ऐसे मध्यवर्तियों के अधिकार उचित क्षतिपूर्ति देकर अर्जित कर लिए जायें और सरकार एक समिति की नियुक्ति करे जो इस उद्देश्य के लिए एक योजना तैयार करे।


इस प्रस्ताव के पारित करने के साथ ही एक "उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन समिति का गठन उ० प्र० शासन द्वारा किया गया। तत्कालीन मुख्यमन्त्री पं० गोविन्द बल्लभ पन्त इसके अध्यक्ष, श्री हुकमसिंह इसके उपाध्यक्ष एवं 15 अन्य सदस्य थे। समिति ने जमींदारी उन्मूलन के कई विषयों पर विचार-विमर्श किया तथा अगस्त 1948 में अपनी आख्या प्रस्तुत की। 

इस समिति की संस्तुति पर सरकार द्वारा एक विधेयक तैयार किया गया। सर्वप्रथम 7 जुलाई, 1949 को यह विधेयक राज्य विधान सभा में प्रस्तुत किया गया। कई संशोधनों के पश्चात् इस विधेयक को 10 जनवरी, 1951 को विधान सभा तथा 16 जनवरी, 1951 को विधान परिषद् द्वारा स्वीकृत कर दिया। 24 जनवरी, 1951 को उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1951 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई तथा 26 जनवरी, 1951 को राज्य के असाधारण गजट में इसे प्रकाशित किया गया।


इस अधिनियम का काफी विरोध तत्कालीन जमींदारों द्वारा किया गया तथा इसकी वैधानिकता को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई कि इस अधिनियम के प्राविधान संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। किन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ये याचिकाएँ निरस्त कर दीं। [सूर्यपाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1951 A. I. R. 674 इलाहाबाद (पूर्णपीठि)]। इसके प्रति उच्चतम न्यायालय में अपील प्रस्तुत की गई जिसे उच्चतम न्यायालय ने निरस्त कर दिया [ A. I. R. 1952 उच्च. न्या. 252] तथा यह अवधारित किया कि यह अधिनियम राज्य की विधायिनी शक्ति के अन्दर ही बना है और इससे भारतीय संविधान के किसी भी उपबन्ध का उल्लंघन नहीं होता। गोविन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1952 A. L. J. 52] |

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