उ. प्र. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1951 से इसके उद्देश्यों की पूर्ति कहाँ तक हुई ? समय-समय पर किए गए संशोधनों के सन्दर्भ में व्याख्या कीजिए ।

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 प्रश्न - उ. प्र. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1951 से इसके उद्देश्यों की पूर्ति कहाँ तक हुई ? अधिनियम में समय-समय पर किए गए संशोधनों के सन्दर्भ में व्याख्या कीजिए ।


Q. To what extent U. P. Zamindari Abolition and Land Reforms Act, 1951 has achieved its objects ? Explain with reference to the various timely amendments made to it.


 1951 में उ. प्र. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम को पारित किया गया। उसमें उसके मूल उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समय-समय पर व्यापक संशोधन किए जाते रहे हैं, किन्तु फिर भी यह अधिनियम उन उद्देश्यों की पूर्ति में पूर्णरूप से सफल नहीं रहा। उद्देश्यों की सफलता व असफलता को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-

 मध्यवर्तियों की समाप्ति

 अधिनियम के पूर्व जोतदार और सरकार का सीधा सम्बन्ध नहीं था। दोनों के मध्य में जमींदार, ताल्लुकेदार, इलाकेदार और जागीरदार का वर्ग था। अधिनियम का मुख्य उद्देश्य था इस शोषक और परोपजीवी (Parasite) वर्ग को हटाकर जोतदार और सरकार के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित करना ।


इस उद्देश्य की पूर्ति में अधिनियम पूर्णतः सफल हुआ। अधिनियम में भूमि विधि से सारे मध्यवर्तियों को हटाकर जोतदार और सरकार के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित किया गया। मध्यवर्तियों की जमींदारी समाप्त कर उन्हें प्रतिकर और पुनर्वास अनुदान भी दिया गया, ताकि वे समाज में अपने को स्थापित कर सकें और कोई अन्य जीविका अपना सकें।


सरल जोतदारी व्यवस्था 

अधिनियम के पहले भूमि-विधि में 14 प्रकार की जोतदारियाँ थीं जो काफी क्लिष्ट एवं भ्रमपूर्ण थीं। इन जटिल एवं भ्रामक जोतदारियों को समाप्त करना भी अधिनियम का एक मुख्य उद्देश्य था । इस उद्देश्य को प्राप्त करने में भी अधिनियम पूर्णतः सफल हुआ। अधिनियम में जमींदारी उन्मूलन के साथ-साथ इन 14 किस्म की जोतदारियों को विनष्ट करके उन्हें मुख्य रूप से चार जोतदारियों में व्यवस्थित कर दिया। ये चार थे- "भूमिधर, सीरदार, आसामी और अधिवासी।" जमींदारी उन्मूलन के सवा दो वर्ष बाद ही अधिवासी को भी सीरदार बना दिया गया। भूमि विधि में 30 अक्टूबर, 1954 के संशोधन के पश्चात् केवल तीन ही जोतदार रहे-भूमिधर, सीरदार और आसामी । इस तरह अधिनियम एक सरल एवं समरूप जोतदारी व्यवस्था स्थापित करने में सफल हुआ। उ० प्र० भूमि विधि (संशोधन) अधिनियम, 1977 द्वारा 28 जनवरी, 1977 से सीरदारों को हटा दिया गया। तथा भूमिधर को दो श्रेणी में विभक्त कर दिया गया - (1) संक्रमणीय भूमिधर (Bhumidhars with transferable rights), एवं (2) असंक्रमणीय भूमिधर (Bhumidhars with non-transferable rights)। इस प्रकार 1977 के अधिनियम द्वारा सीरदारों को समाप्त कर दिया गया, परन्तु आसामी जोतदारों को यथारूप रहने दिया गया।

लगान पर भूमि उठाने पर रोक 

अधिनियम निर्माताओं की नीति थी कि जो भूमि को जोते-बोचे, वही भूमि का मालिक हो।" तदनुसार अधिनियम यह प्रावधान करता है कि कोई भी जोतदार जब तक कि वह धारा 157 (1) में वर्णित अक्षम व्यक्ति न हो, अपनी भूमि को लगान पर नहीं उठा सकता। यदि वह ऐसा करता है तो उसका अधिकार जोत से समाप्त हो जाएगा।


उ. प्र. भूमि विधि (संशोधन) अधिनियम, 1975 ने जमींदारी अधिनियम में संशोधन करके बटाई-प्रथा समाप्त करने का प्रबन्ध किया। इस संशोधन द्वारा धारा 156 (2) के मूल स्पष्टीकरण के स्थान पर यह स्पष्टीकरण रखा गया कि यदि भूमि का कब्जा किसी जोतदार ने साझीदार को इस शर्त पर दे दिया है कि वह जोतदार को उपज का आधा (या कोई) भाग देगा तो इसे लगान पर उठाना माना जाएगा।

धारा 156 का संशोधित स्पष्टीकरण भी उ. प्र. भूमि विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा निकाल दिया गया ताकि बटाई-प्रथा की कोई गुंजाइश न रह सके। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम भूमि को उठाने के रोक में सफल हो गया है।

अलाभकर जोतों के निर्माण पर रोक

अधिनियम का एक उद्देश्य यह भी था कि अलाभकर जोत भविष्य में न बने। 3 एकड़ तक की जोत को अलाभकर माना गया है। अधिनियम के अन्तर्गत एकड़ तक की जोत का या इससे कम विभाजन नहीं किया जा सकता। यदि बँटवारे की भूमि 3 एकड़ या इससे कम है तो न्यायालय उस भूमि का वास्तविक विभाजन नहीं करेगा वरन् उस भूमि के विक्रय का आदेश देगा तथा इस प्रकार प्राप्त विक्रय राशि को उसके सह-जोतदारों में उनके अंश व स्वत्व के अनुसार बाँट दिया जाएगा।

भूमि के अधिक जमाव पर रोक

कुछ व्यक्तियों के पास भूमि को एकत्रित होने से रोकने के लिए अधिनियम ने यह प्राविधान किया था कि भविष्य में कोई भी परिवार हस्तान्तरण (दान या विक्रय आदि) द्वारा ऐसी जोत को प्राप्त न करेगा जो उसकी जोत को मिलाकर 12 ½ एकड़ से अधिक पूरे प्रदेश में न हो जाए। प्रारम्भ में यह सीमा 30 एकड़ थी, किन्तु भूमि विधि (संशोधन) अधिनियम, 1958 द्वारा यह सीमा 12 एकड़ कर दी गई।

इसका उद्देश्य यह है कि एक परिवार के पास उतनी ही भूमि होनी चाहिए जिससे वह तथा उसका परिवार उचित प्रकार से खेती कर सके। इस प्रकार एक व्यक्ति व उसके परिवार के पास 12 एकड़ से अधिक भूमि पर नियन्त्रण लगाया गया। इस प्रावधान के उल्लंघन में किया गया अन्तरण शून्य होगा तथा भूमि राज्य में निहित कर दी जाएगी।

अधिनियम में यह प्राविधान धारा 154 में वर्णित किया गया है। इस धारा में 'परिवार' की परिभाषा दोषपूर्ण थी। इसमें सम्मिलित थे पति, पत्नी व अवयस्क बच्चे । परिवार में माता-पिता सम्मिलित नहीं थे। इसके कारण चतुर लोग अपने अवयस्क बच्चों के नाम भूमि क्रय करके धारा 154 के प्राविधानों से बचने लगे। विधान मण्डल ने उ. प्र. भूमि विधि (संशोधन) अधिनियम, 1974 पारित करके इस दोष को दूर कर दिया। अब परिवार में पति या पत्नी (संक्रमणी-जैसी भी दशा हो) व अवयस्क बच्चे तथा, यदि संक्रमणी अवयस्क बच्चे हैं तो उनके माता-पिता भी परिवार में सम्मिलित समझे जायेंगे।

इस प्रकार अधिनियम अब भूमि के अधिक जमाव पर प्रभावी प्रतिबन्ध लगाने में सफल हो गया है।

ग्राम्य स्वायत्त शासन का विकास

अधिनियम का एक मुख्य उद्देश्य प्रत्येक गाँव को एक अलग जनतन्त्रात्मक गणतन्त्र के रूप में विकसित करना था । जमींदारी समाप्ति पर जमींदारी सम्पत्ति को राज्य सरकार ने तत्सम्बन्धी गाँव-समाज में निहित कर दिया। गाँव-समाज में निहित इस भौमिक सम्पत्ति का पर्यवेक्षण प्रबन्ध, संरक्षण और नियन्त्रण का भार गाँव-सभा को सौंप दिया गया, किन्तु भूमि का प्रबन्ध और बन्दोबस्त भूमि प्रबन्धक समिति के सुपुर्द कर दिया गया।

आठ-नौ वर्ष के अनुभव ने उ. प्र. सरकार को इस निष्कर्ष पर ला दिया कि गाँव-समाज का रहना आवश्यक नहीं। अतः उ. प्र. क्षेत्र समिति एवं जिला परिषद् अधिनियम, 1961 ने जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम से गाँव-समाज सम्बन्धी प्रावधानों को निकाल दिया है और गाँव-समाज के स्थान पर गाँव-सभा को स्थान दिया। अब गाँव में केवल तीन ही जनतन्त्रीय संस्थाएं हैं— गाँव-सभा, उनकी कार्यकारिणी 'गाँव पंचायत' और विशेष कार्यकारिणी भूमि प्रबन्धक समिति' ।

साधारणतया गाँव के सभी 18 वर्ष की आयु के व्यक्ति गाँव-सभा के सदस्य होते हैं और वे गाँव के प्रधान को और गाँव-सभा की कार्यकारिणी गाँव- पंचायत को गुप्त मतदान द्वारा चुनते हैं। गाँव-पंचायत को गाँव के प्रशासन के लिए व्यापक शक्तियाँ एवं अधिकार प्रदान किए गए हैं। गाँव-सभा की ओर से भूमि प्रबन्धक समिति गाँव-सभा की सभी भूमियों, आबादी-स्थल मार्ग, जंगल, मीनाशय, तालाब, पोखरा, जल-स्रोत, हाट, बाजार और मेला, आदि का पर्यवेक्षण, प्रबन्ध और नियन्त्रण करती है।


इस प्रकार गाँव अब एक जनतन्त्रीय इकाई के रूप में विकसित हो गए हैं। इन गाँवों की हैसियत लगभग वैसे ही है जैसे स्विट्जरलैण्ड के कैण्टन की। अधिनियम स्वायत्त शासन की स्थापना में पूर्ण सफल रहा है।

सहकारी कृषि को प्रोत्साहन 

अधिनियम का एक उद्देश्य यह भी था कि सहकारी कृषि को प्रोत्साहन दिया जाय। इसलिए अधिनियम में एक पूरा ग्यारहवाँ अध्याय सहकारी कृषि स्थापना के विषय में था । सहकारी कृषि को बहुत-सी सुविधाएँ प्रदान की गई थीं। इसके बावजूद भी सहकारी कृषि फार्म बहुत कम संख्या में स्थापित हो सके। सन् 1965 में तो सहकारी कृषि फार्म-सम्बन्धी कानून उ. प्र. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम में से निकाल लिया गया और उसे उ. प्र. सहकारी समिति अधिनियम, 1965 में रखा गया। 

अधिनियम इस उद्देश्य की पूर्ति में अधिक सफल नहीं रहा तथा प्रदेश में सहकारी आन्दोलन ऐसा विकसित नहीं हो सका जैसा कि इसकी कल्पना की गई थी। 


उपरोक्त विवेचना से यह कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर अधिनियम अपने उद्देश्यों के अधिकांश भाग को प्राप्त करने में सफल रहा है। 

उ. प्र. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1951



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